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          इन आंखों को ज़रा गौर से देखिये, इसने अपने अंदर माजी के सारे दर्द भरे किस्से समेट रखें है। इन उदास आंखों को देखने के बाद कुछ लिखने और कहने को बाकी नहीं रह जाता है अल्फ़ाज़ कम पड़ जाएंगे दर्द को ज़ाहिर करने में। महसूस करने वालों के लिए ये तस्वीर अपने आप में कुर्बानियों का एक तवील किस्सा है।
          बस इन आंखो को देखिए और उनके दिल से निकले इन अल्फ़ाज़ों को पढ़िये ये सब आपको माज़ी में ले जाएगा कैसे मुग़ल सल्तनत के एक बादशाह ने तख़्त-ओ-ताज को ठोकर मारकर ज़िन्दगी के आखिरी दिन मुश्किलों में गुज़ार दिए लेकिन गले मे गुलामी की जंजीर नहीं डाली 7 नवंबर 1862 को जब मुग़ल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र इस दुनिया से रुख़सत हुए होंगे तो उनकी ज़ुबाँ पर उनका लिखा हुआ यही शेर रहा होगा।
“कितना है बदनसीब “ज़फ़र″ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
दिन ज़िन्दगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएँगे कुंज-ए-मज़ार में”

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