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युद्धविराम पर सवाल: दीपिका पुष्कर नाथ ने पूछा—’क्या जानों की कीमत और टूटे घर इसके लायक थे?

मोदी पर जनविश्वास का संकट बताया, इंदिरा गांधी की विरासत को कहा ‘अमर’!

पाकिस्तान में सेना का बढ़ा समर्थन; दीपिका ने कहा—’अति राष्ट्रवाद नहीं, कूटनीति है असली ताकत’!

नई दिल्ली। 10 मई। सोशल मीडिया पर सक्रिय लेखिका और विचारक दीपिका पुष्कर नाथ ने अपने एक्स (ट्विटर) अकाउंट पर भारत-पाकिस्तान के बीच हाल के तनाव और युद्धविराम को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने जम्मू-कश्मीर और पंजाब में नागरिकों की मौतों, परिवारों के बिखरने तथा युद्ध की वास्तविक कीमत पर चिंता जताते हुए कहा कि “रणनीतिक जीत के नाम पर हुए संघर्ष ने आम लोगों को क्या दिया”?

 

दीपिका ने लिखा कि “जब युद्ध की रणभेरी बजी, तो राष्ट्र ने विचारधाराओं से ऊपर उठकर प्रधानमंत्री मोदी का साथ दिया। मगर आज युद्धविराम हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर जो जानें गईं, घर उजड़े, वह सब इसके लायक था?” उन्होंने अमेरिका द्वारा शांति स्थापना को “भारत की ऐतिहासिक आकांक्षाओं के विपरीत” बताया और आरोप लगाया कि “वैश्विक मंचों और नोएडा स्थित मीडिया चैनलों पर राजनीति हावी रही, जबकि कीमत आम लोगों ने चुकाई।”

इंदिरा गांधी vs मोदी:

दीपिका ने मोदी सरकार पर जनविश्वास खोने का आरोप लगाते हुए कहा कि “राजनीति चुनावी जीत से नहीं, जनता के दिलों में जगह बनाकर चलती है। इंदिरा गांधी आज भी भारतीय राजनीति में बुलंद हैं, जबकि मोदी इस मोर्चे पर पिछड़ गए।”

पाकिस्तान को मिला ‘एकजुटता का मौका’:

उन्होंने तनाव के परिणामों पर जोर देते हुए कहा कि “इस टकराव ने पाकिस्तान को अलग-थलग करने की बजाय उसकी सेना और जनता को एकजुट कर दिया। पाकिस्तानी जनता, जो एक साल पहले सेना के खिलाफ थी, अब उसे गले लगा रही है।” साथ ही, उन्होंने भारतीय मीडिया पर निशाना साधते हुए कहा कि “नोएडा स्टूडियो से युद्ध की गौरवगाथाएं सुनाई गईं, लेकिन हकीकत यह है कि दोनों देश युद्ध का जोखिम नहीं उठा सकते।”

संयम और कूटनीति है असली ताकत:

अपने ट्वीट के अंत में दीपिका ने अति राष्ट्रवादियों को संदेश देते हुए लिखा, “सच्ची शक्ति बमों में नहीं, बल्कि संयम, कूटनीति और उन लोगों के जीवन के सम्मान में है, जिनकी रक्षा का हम दावा करते हैं।”

यह ट्वीट श्रृंखला सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बन गई है, जहां एक तरफ दीपिका के विचारों का समर्थन हो रहा है, वहीं कई लोग उनकी आलोचना भी कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बहस भारत की सुरक्षा नीतियों और राजनीतिक नेतृत्व पर गहरे सवाल उठाती है।

 

 

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