सम्भल मस्जिद पर तिरपाल

 

विवादित तिरपाल: होली और सरकारी लाचारगी का प्रतीक

इस वर्ष होली के अवसर पर कुछ मस्जिदों को तिरपाल से ढक दिए जाने की घटना ने एक नई बहस छेड़ दी है। यह कदम प्रशासन द्वारा इस आशंका के तहत उठाया गया कि कहीं कोई अतिरिक्त उत्साही व्यक्ति मस्जिदों पर रंग न फेंक दे। हालाँकि, यह निर्णय सवालों के घेरे में है: क्या यह सरकार की नीतिगत विफलता, समाज में बढ़ती अविश्वास की भावना, या फिर धार्मिक सौहार्द के प्रति प्रशासनिक असंवेदनशीलता का प्रतीक है?

होली जैसे रंग-बिरंगे त्योहार को भारतीय संस्कृति में सामूहिक उल्लास और एकता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन इस बार कुछ क्षेत्रों में मस्जिदों को तिरपाल से ढकने की तस्वीरें सामने आईं। प्रशासन का तर्क था कि यह “संभावित उपद्रव” को रोकने के लिए एक “सावधानी” है। परंतु यह सावधानी स्वयं ही प्रश्नों को जन्म देती है: क्या भारतीय समाज इतना असंयमी है कि उसे धार्मिक स्थलों की गरिमा का ख्याल नहीं रहता? या फिर प्रशासन ने अतिरिक्त सतर्कता दिखाते हुए अविश्वास का वातावरण बना दिया?

प्रशासनिक दृष्टिकोण पर सवाल

अपेक्षित नीति vs. तात्कालिक उपाय: प्रशासन का यह कदम एक रक्षात्मक उपाय लग सकता है, लेकिन यह दीर्घकालिक समाधान नहीं है। समाज के “सभ्य सनातनियों” पर भरोसा करने के बजाय, तिरपाल लगाने का निर्णय इस ओर इशारा करता है कि प्रशासन अपने नागरिकों को परिपक्व नहीं मानता।

चेतावनी का अभाव: इसके बजाय, प्रशासन शरारती तत्वों के खिलाफ सख़्त गाइडलाइन जारी कर सकता था, जैसे कि धार्मिक स्थलों की अग्रिम सुरक्षा, सामुदायिक जागरूकता अभियान, या सख़्त कानूनी कार्रवाई की चेतावनी।

लाचारगी का आरोप: तिरपाल की यह छवि सरकार की “बेबसी” को उजागर करती है। क्या यह शासन की नीतिगत कमजोरी है कि वह कानून व्यवस्था बनाए रखने के बजाय ऐसे उपायों पर निर्भर है?

सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव

अविश्वास की खाई: यह घटना हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी करती है। यह संदेश जाता है कि समाज के एक वर्ग को दूसरे पर अंकुश की आवश्यकता है।

सभ्यता vs. उपद्रवी: कोई भी “सभ्य सनातनी” ऐसा कृत्य नहीं करेगा। यदि कोई करता है, तो वह धर्म नहीं… अधर्म है बल्कि असामाजिक मानसिकता का प्रतीक है। ऐसे में, प्रशासन को उपद्रवियों पर कार्रवाई करनी चाहिए, न कि पूरे समाज को संदेह की नज़र से देखना चाहिए।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारत के इतिहास में धार्मिक स्थलों को त्योहारों के दौरान ढांकने का कोई उदाहरण नहीं मिलता। दिवाली पर मंदिर, ईद पर मस्जिदें, या क्रिसमस पर चर्च—सभी खुलेआम सम्मान के साथ सजते-धजते रहे हैं। यह भारत की बहुलवादी संस्कृति की पहचान रही है। तिरपाल की यह घटना इस परंपरा के विपरीत एक अजीबोगरीब उदाहरण है।

सरकार पर उठते सवाल

संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी: भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता और सभी धर्मों के सम्मान की बात करता है। प्रशासन का यह कदम अप्रत्यक्ष रूप से इस भावना को आघात पहुँचाता है।

नीतिगत विफलता: क्या यह सरकार की नीति निर्माण में दूरदर्शिता की कमी को दिखाता है? क्यों नहीं सामुदायिक सद्भाव के लिए पहले से ही कोई ठोस योजना बनाई गई?

निष्कर्ष

तिरपाल की यह घटना केवल एक सुरक्षा उपाय नहीं, बल्कि एक प्रतीक है जो सरकारी निष्क्रियता, सामाजिक अविश्वास और सांस्कृतिक संवेदनशीलता के अभाव को उजागर करती है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रशासन समाज के प्रति विश्वास जताए, उपद्रवियों के खिलाफ सख़्त कार्रवाई की चेतावनी जारी करे, और धार्मिक स्थलों की गरिमा को राजनीतिक-प्रशासनिक कमजोरी का शिकार न बनने दे। भारत की ताकत उसकी “विविधता में एकता है”, और इस एकता को बनाए रखने के लिए सरकार को न केवल नीतियों, बल्कि नैतिक नेतृत्व का भी परिचय देना होगा।

 

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