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नैनीताल में मुस्लिम सबइंस्पेक्टर पर धार्मिक नफ़रत का हमला: थाने में ही दंगाइयों ने की जानलेवा हमले की कोशिश!

गिरेबान पर हाथ डाला, गालियां दीं, जान से मारने की धमकी!” मल्लीताल थाने में पुलिस की मूकदर्शी भूमिका पर सवाल!

मध्य प्रदेश के बाद उत्तराखंड: क्या मुस्लिम अफसरों को निशाना बना रही हिंदूवादी हिंसा?

 

उत्तराखंड। मल्लीताल, नैनीताल: धार्मिक नफ़रत की आग अब क़ानून-व्यवस्था के संरक्षकों तक पहुंच गई है। नैनीताल जिले के मल्लीताल थाने में तैनात ईमानदार पुलिस अधिकारी सब-इंस्पेक्टर आसिफ खान पर दंगाइयों ने सिर्फ़ मुस्लिम होने के “कसूर” में बर्बर हमला किया। घटना के दौरान आसिफ के गिरेबान पर हाथ डाला और उनकी वर्दी खींची गई, उन्हें गालियों और जान से मारने की धमकियों से निशाना बनाया गया। सब-इंस्पेक्टर आसिफ़ ख़ान भीड़ से बचने के लिए भीड़ से बचकर वहां से जाने की कोशिश की लेकिन हुड़दंगी भीड़ ने उनको खींच कर पकड़ा। हैरानी की बात यह कि मौके पर मौजूद पुलिसकर्मियों ने इस पूरे वाक़ये को चुपचाप तमाशा बनकर देखा।

यह घटना उसी सांप्रदायिक नफ़रत की कड़ी है जो कुछ दिन पहले मध्य प्रदेश में सामने आई थी। वहां दौलत खान नाम के एक मुस्लिम पुलिसकर्मी को उनके धर्म के आधार पर निशाना बनाया गया। हमलावरों ने न केवल उनकी पिटाई की, बल्कि उनके कपड़े फाड़कर उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया। दोनों मामलों में पीड़ित अधिकारियों का एकमात्र “अपराध” उनका मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखना है।

प्रशासन और सियासत की चुप्पी पर सवाल!

इन घटनाओं ने पुलिस प्रशासन और सरकारों की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आसिफ खान के मामले में थाने के अधिकारियों ने अभी तक कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है, जबकि स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता इसे “सांप्रदायिक उन्माद की नई इबारत” बता रहे हैं। उत्तराखंड और मध्य प्रदेश दोनों ही राज्यों में सत्तारूढ़ दलों पर हिंदूवादी समूहों को संरक्षण देने के आरोप लगते रहे हैं।

जनता और विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया

सामाजिक बुद्धिजीव लोगों का मानना है कि यह खतरनाक प्रवृत्ति है कि क़ानून के रखवाले ही नफ़रत का शिकार हो रहे हैं। अगर पुलिस सुरक्षित नहीं, तो आम नागरिक कैसे सुरक्षित महसूस करेंगे? सोशल मीडिया पर भी इस मामले में न्याय की मांग को लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं आई हैं।

ये घटनाएं न केवल सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खतरा हैं, बल्कि देश की क़ानूनी प्रणाली पर भी सवालिया निशान लगाती हैं। सवाल यह है कि क्या अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े अधिकारी अपने ही देश में सुरक्षित हैं? जब तक ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई नहीं होगी, “सबका साथ, सबका विकास” का नारा खोखला साबित होता रहेगा।

 

 

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