सुलोचना रूबी मायर्स

भारतीय सिनेमा की पहली ‘जुबली गर्ल’ जिनकी फिल्में 3 साल तक सिनेमाघरों में छाई रहीं

मुंबई। भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई दिग्गज अभिनेत्रियों ने अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीता, लेकिन एक नाम ऐसा भी है जिसे “पहली जुबली गर्ल” का खिताब मिला। यह हैं मूक फिल्मों से लेकर बोलती फिल्मों तक अपना जलवा बिखेरने वाली सुलोचना (रूबी मायर्स), जिन्होंने 1920 से 1940 के दशक तक इंडस्ट्री पर राज किया। उनकी फिल्में इतनी लोकप्रिय होती थीं कि कई सालों तक सिनेमाघरों में चलती रहती थीं।

कौन थीं सुलोचना?

सुलोचना का जन्म 1907 में एक यहूदी परिवार में हुआ था। उन्होंने 1925 में मूक फिल्म “वीर बाला” से अपने करियर की शुरुआत की। जब बोलती फिल्मों का दौर आया, तो उन्होंने हिंदी, उर्दू, मराठी और अंग्रेजी भाषाओं में अपनी मधुर आवाज से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। 1934 में आई उनकी फिल्म “इंदिरा एम.ए.” ने तो रिकॉर्ड तोड़ व्यवसाय किया। यह फिल्म लगातार 25 हफ्तों (सिल्वर जुबली) से अधिक समय तक चली और उस दौर में यह एक बड़ी उपलब्धि थी। कुछ स्रोतों के अनुसार, मुंबई के कुछ सिनेमाघरों में यह फिल्म 3 साल तक चलती रही।

क्यों कहा जाता है उन्हें ‘जुबली गर्ल’?

1930 के दशक में फिल्मों की सफलता को “जुबली” (25 हफ्ते), “गोल्डन जुबली” (50 हफ्ते) और “डायमंड जुबली” (100 हफ्ते) से आंका जाता था। सुलोचना की फिल्में न केवल लगातार जुबली पार करती थीं, बल्कि उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाने वाली पहली अभिनेत्री भी माना जाता है। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उस जमाने में उन्हें प्रति फिल्म 25,000 रुपये मिलते थे, जो उस समय के बड़े सितारों से भी अधिक था।

स्टाइल और प्रभाव

सुलोचना ने अपने बोल्ड अवतार और फैशनेबल अंदाज से उस जमाने में महिलाओं के लिए नए मायने गढ़े। वह पर्दे पर कार चलाने, घुड़सवारी करने और स्वतंत्र चरित्र निभाने वाली पहली अभिनेत्रियों में से थीं। उनकी फिल्म “बाम्बई की बिल्ली” (1941) ने तो महिला सशक्तिकरण को नई परिभाषा दी।

विरासत

सुलोचना ने 50 से अधिक फिल्मों में काम किया और 1963 में पद्मश्री से सम्मानित हुईं। 1983 में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी फिल्में आज भी भारतीय सिनेमा की बुलंदियों की गवाह हैं। फिल्म इतिहासकार दीपेश शर्मा कहते हैं कि सुलोचना ने साबित किया कि एक अभिनेत्री सिर्फ सुंदर चेहरा नहीं, बल्कि बॉक्स ऑफिस की ताकत भी हो सकती है।

आज भी उनकी याद में मुंबई के मैरिन ड्राइव पर एक मूर्ति स्थापित है, जो नई पीढ़ी को उस दौर की मिसाल बताती है जब सिनेमा का जादू 3 साल तक चलता था!

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