उत्तर प्रदेश मुज़फ़्फ़रनगर शामली

मुसलमानों की अखिलेश से कब टूटेंगी आस

फरमान अब्बासी

 

एक बात बिल्कुल भी समझ नहीं आ रही, कि यूपी का मुसलमान और सपा के मुस्लिम कार्यकत्ताओं की आस सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पर अब तक क्यों टिकी है?

जब से प्रदेश में योगी सरकार आई है तब से सपा अखिलेश यादव के नेतृत्व में मुस्लिमो के हक़ की खुलकर आवाज़ उठाने से कतराती आई हैं, ये जब है तब इसी बात को लेकर लगातार विरोध होता ही रहता है, मगर किसी भी विरोध से सपा पर फर्क पड़ता नही दिखा।

दरअसल फर्क पड़ेंगा भी क्यो?

क्योकि विरोध जबानी तो भलि भांति किया जाता है, लेकिन चुनाव में सपा को ताकत देने के लिए हर एक मुसलमान पूरी ताकत झोंक देता है।

इसकी बानगी 2022 विधानसभा चुनाव में देखी जा चुकी हैं। हर बार से ज्यादा इस बार मुसलमानों ने सपा को वोट किया हैं, तो फिर सोचिए, किसी आलोचना का असर पड़ेंगा ही क्यो? जो उन्हें चाहिए, वो तो आप उन्हें पूरी ईमानदारी से दे ही देते हो।

यूपी में सबसे बड़ा मुद्दा आज़म खान पर सपा की चुप्पी को लेकर उठ रहा है, यहां तक कि आजम खान की रिहाई हो चुकी, अब भी फेसबुक आदि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अखिलेश से नाराजगी की पोस्ट देखी जा रही है।

लोग लिख रहे है कि आजम खां को जेल पर लेने अखिलेश नहीं आये।

सवाल यही कि आखिर यूपी के मुसलमानों की आस अखिलेश यादव से कब खत्म होंगी?

जब यूपी में मुस्लिम लीडरशिप पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी या फिर जब मुसलमान नेता सपा से बाहर हो जाएंगे।

मुसलमानों की सबसे बड़ी कमी यही है, जो उन्हें मरहम लगाता है, उनका मसीहा वो नहीं बल्कि जो जख्म देता है, उसी को हमदर्द समझा जाता हैं, बस दर्द देकर दो अल्फ़ाज़ उनके लिए कह दे, तो सब भुला दिया जाता हैं, बीजेपी से डराकर आज तक सेक्युलर बनकर वोट लेने वाले राजनैतिक दलों की सच्चाई को जानिये।

आपको डराया जाता है, बीजेपी का भय दिखाया जाता है, अन्य पार्टी भय दिखाते-दिखाते मुसलमानी की वोट लेती रही और बीजेपी पूरे देश पर काबिज हो गई, लेकिन मुसलमान आज भी यही सोचकर वोट करता है, बस बीजेपी न आ जाये, किसी को भी वोट चली जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता।

इसी के चलते उसे अपने मुद्दे याद नही रहते, शिक्षा की बात नहीं होती। तरक्की की बात नहीं होती, बात होती है तो सिर्फ बीजेपी की।

जो नेता आपकी गाड़ी और झगडा करने पर आपको थाने से छुड़ा ले, वही आपका मसीहा बन जाता है। एक पुलिस कर्मी से दोस्ती होने पर मौहल्ले के दलाल, मुखबिरों को भी अपना मसीहा मान लेते हैं।

भले ही उठवाने वाला भी वही हो, और छुड़ाने वाला भी वही।

मुसलमानों को दलितों से सीखने की आवश्यकता है। क्या जुल्म ज्यादती क्या होती है, ये दलितों के पूर्वजों से पूछिए, लेकिन उन्होंने शिक्षा को अपना हथियार बनाकर समाज मे स्वयं अपनी मेहनत से सम्मान हासिल किया है। आज बिना दलितों के कोई भी पार्टी या विभाग मुकम्मल नहीं हैं।

अपने समाज के पढ़े लिखे, काबिल लोगो की कद्र करो।

 

 

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