इन लेख के शुरू होते ही पहले स्पष्ठ कर देना चाहता हूं, की महाराणा अमरसिंह ने मुगलो से, जहांगीर से या किसी भी अन्य मुसलमान से कोई संधि नही की, अगर आपने यह इतिहास में पढ़ा है, तो यह मिथ्या बात है, कोरी बकवास है।
किसी भी शाशक के इतिहास को जानने से पहले उस शाशक के पूर्व ओर बाद कि स्तिथि दोनो का पता होना चाहिए, तभी सही मायने में सही – सही आंकलन हम कर सकते है। भारत के मुख्य इतिहासकार, चाहे कर्नल टॉड हो या हीरानंद ओझा, उन्होंने मुगल पोथियां देखकर ही हिन्दुओ का इतिहास लिखा है, इन लोगो के इतिहास में कोई सत्यता नही।
अमरसिंह के बचपन का थोड़ा समय भले ही कष्ठ में बिता हो लेकिन उसके बाद उन्होंने कभी दुख नही देखा, महाराणा प्रताप ने अकबर को हराकर खुद को बहुत सुदृढ़ कर लिया था। राणा अमरसिंहः की अभी इतिहास शुरू शुरू में विलासी राजा बताते है, जो कि सच भी है। विलासी कोई तभी हो पाता है, जब उसका परिवार संघर्ष ना कर रहा हो, ओर सम्पन्न हो, तो यह तो यहां साबित होता है, की महाराणा प्रताप एक विशाल भूखण्ड के स्वामी हो गए थे। लेकिन अमर सिंहः के बाद कि स्तिथि देखे, तो मेवाड़ की स्तिथि बहुत ही दयनीय थी। अब विचार करने वाली बात यह है, की अगर अमरसिंहः संधि कर लेते, तो स्तिथि दयनीय क्यो होती ?
आपको यह मानकर चलना होगा, की जिस भी राजवंश ने इस्लाम कबूल नही किया, उसने केवल मुसलमानो से युद्ध ही किया । उनकी कोई संधि मुसलमानो से नही रही, चाहे वह जयपुर के मानसिंहः हो, या मेवाड़ के अमरसिंहः
अमर सिंह की विजय गाथा
महाराणा प्रताप के 17 पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ महाराणा अमर सिंह 38 साल की उम्र में 23 जनवरी 1597 को मेवाड़ के सिंहासन पर विराजमान हुए । जब तक महाराणा प्रताप खुद जीवित थे, उन्हें राजपाठ की कोई चिंता नही थी । राजपरिवार में कोई क्लेश भी नही था, की राजगद्दी के लिए षड्यंत्र की चिंता हो । महाराणा प्रताप के स्वर्ग सिधारने के बाद अमर-महल बनाकर अमरसिंहः अपना शाशन शांति से चला रहे थे । यही लापरवाही अमरसिंहः के लिए भारी भी पड़ सकती थी, क्यो की विजयादशमी के दिन अचानक जहांगीर ने उनपर आक्रमण कर दिया । मुगल सेना चारो ओर से मेवाड़ के घेराव कर रही थी।
त्योहार के दिन जब एक विशाल सेना राजपूताने की दहलीज पर आकर खड़ी हो गयी, तो अमरसिंह घबरा गए, उनकी घबराहट देखकर सामन्तो ओर सरदारों को बड़ा असंतोष हुआ ।
अमरसिंहः के मुख का भय देखकर सम्बुक का एक सरदार क्रोध से तिलमिला गया, उसने अमरसिंहः से कहा –
” आप जानते भी है आप कौन है ? आप वीरो के वीर सिसोदिया वंशी महाराणा प्रताप के ज्येष्ठ पुत्र है । आपने तो अपने पिता का संघर्ष अपनी आंखों से देखा है । अपने वंश, सनातन ओर अपनी आन-बान – शान के लिए ना जाने कितने राजपूतो ने बलिदान दिए है। मल्लेछ सिर पर आ बेठे है, ओर आप शांत बेठे है।
अमर सिंहः से इस बात का कोई जवाब नही दिया, वे शांत रहे ।
अमरसिंहः की चुप्पी से सम्बुक सरदार का पारा दुगना चढ़ गया, उसने सभी सामन्त सरदारों से कहा, युद्ध की तैयारी करो साथियों …. मेवाड़ के इस कलंक की रक्षा करने हमे रणभूमि पर भी जाना है “
राणा के यह वचन सुनकर अमरसिंहः के आंखों में बिजली चमक उठी ।उन्होंने तुरंत अपनी म्यान से तलवार निकाली और घोषणा कर दी, की एक भी मल्लेछ वापस जीवित ना लौट पाए ।
मुगल सेना देवीर नाम के स्थान पर अपना पड़ाव डाले हुए थी ।
“विजयादशमी के मौके को,
राणा ने तलवारें खींची |
चढ़ दिवेर की घाटी को,
मुगलों के रक्त से सींची ||”
विजयादशमी का दिन था, राजपूत योद्धाओं ने शस्त्र पूजन कर दिवेर घाटी के पूर्व सिरे पर जहां मुगल सेना पड़ाव डाले पड़ी थी, वहीं हमला कर दिया। दिवेर की सामरिक स्थिति का आंकलन कर प्रताप ने शाहबाज खान द्वारा हस्तगत मेवाड़ की मुक्ति का अभियान यहां से प्रारंभ किया। इस युद्ध में अमरसिंह, भामाशाह, चुंडावत, शक्तावत, सोलंकी, पडिहार, रावत आदि राजपूतों तथा भील सैनिकों से युक्त पराक्रम सेना के साथ दिवेर पर आक्रमण किया। मेवाड़ी सेना के आने की सूचना मिलते ही सुल्तान खान युद्ध के लिए सामने आया तथा उसने आस पास के मुगल थानों में भी खबर भेज दी। वहां 14 मुगल सरदार दिवेर युद्ध में मुगलों की सहायता के लिए पहुंचे। मेवाड़ तथा मुगल सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। सुल्तान खान हाथी पर बैठा अपनी सेना का संचालन कर रहा था।
अमरसिंहः के एक सैनिक सोलंकी भृत्य पडिहार ने तलवार के वार से हाथी के अगले पैर काट डाले तथा प्रताप ने हाथी के मस्तक को भाले से फोड़ दिया। हाथी गिर पड़ा एवं सुल्तान खान कोहाथी छोडऩा पड़ा और वह घोड़े पर बैठकर लडऩे लगा। उसका सामना अमरसिंह से हुआ। अमरसिंह ने भाले से इतना जोरदार वार किया कि एक ही वार में सुल्तान खान के, उसके घोड़े के तथा उसके टोप बख्तर को एक साथ भाले में पिरो दिया। इसके बाद सभी थाने व चौकियों से बचे खुचे मुगल पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। इस पराजय से पूरी दिल्ली हिल गयी । युद्ध के एक वर्ष पश्चात जहांगीर की मति दुबारा भर्स्ट हो गयी, ओर अब्दुल्ला को सेनापति बनाकर राणा अमरसिंहः से युद्ध करने भेज दिया । परिणाम वही रहा, सारे मुसलमानो की वहीं कब्र बना दी गयी ।
अब राजपूतो को जितना जहांगीर को असंभव लगने लगा । राजपूतो का यह आक्रमण पिछले आक्रमण से भी ज़्यादा भयंकर था । इसलिए एक राजपूत सागर सिंहः को उन्होंने अमरसिंहः के विरुद्ध सेनापति बनाकर भेजा । लगातार 7 वर्ष तक सागरसिंह प्रयास करता रहा । लेकिन हर बार पूरी सेना खत्म कर दी जाती, ओर सागरसिंहः को जीवित छोड़ दिया जाता, ताकि वह मुगल दरबार मे अपनी हार का आंखों देखा हाल सुना सके । बार बार पराजय से शर्मिंदा सागरसिंहः ने खुद अपनी तलवार से ही अपना गला काट लिया ।
जहांगीर अब दुबारा मेवाड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा । इस बार मेवाड़ की सेना आपस मे ही लड़ने लगी । लड़ाई थी, पहले सिर कौन कटाये, एक दल कहता पहले में, तो दूसरा दल कहता पहले में ।
राणा अमरसिंहः अब किसका पक्ष ले ? अतः उन्होंने बीच का रास्ता यह निकाला कि आपस मे प्रतियोगिता कर विजयी हो जाओ , वही हरावल सेना होगी । इस हरावल सेना का तातपर्य था, सेना की अग्रिम पंक्ति ने जाकर खड़ा होना, ओर आगे खुद बढ़कर युद्ध करना, पहले हर बार चूंडावत इस सेना का हिस्सा हुआ करते थे, इस बार शक्तावत ने दावा ठोक दिया । प्रतियोगिता थी, दुर्ग का द्वार तोड़कर जिस भी सेना का सैनिक पहले प्रवेश करेगा, वही हरावल सेना कहलाएगी ।
प्रतियोगिता आरम्भ हई, शक्तावत ने हाथी की ठोकरों से दुर्ग को तुड़वाने की सोची, लेकिन द्वार पर तेज भाले लगे होने के कारण हांथी द्वार पर प्रहार नही कर पा रहा था, तब शक्तावत सरदार खुद जाकर द्वार से चिपक गया, ओर कहा, अब हाथी से मेरे देह पर वार करवाओ, इसे भाले नही चुभेंगे, गेट टूट जाएगा । वैसा ही हुआ, हाथी गेट टूटने वाला ही था, की चूंडावत सरदार ने पराजय निकट देख अपने साथियों से कहा, मेरा मस्तक काट कर दुर्ग के भीतर फेंक दो । वही हुआ, गेट भी टूटा, लेकिन शक्तावत सेना दुर्ग में प्रवेश करती, उससे पहले ही चूंडावत सरदार का सिर दुर्ग के अंदर था । चूंडावत हरावल सेना को युद्ध में आगे रहने का अवसर मिला, लेकिन इस प्रतियोगिता में जीता कौन, यह बयान करना किसी इतिहासकार के बस के बात नही ….
इन्ही राजपूतो को जहांगीर की कायर सेना हराना चाहती थी । लगातार हारने के बाद भी जहांगीर को अक्ल ना आई, ओर एक आक्रमण अपने पुत्र परवेज के नेतृत्व में मेवाड़ पर करवा दिया । इस युद्ध में फिर राजपूतो की तलवारे चमकी, ओर कुछ ही समय मे मुसलमान सैनिक नामशेष हो गए, परवेज खुद अपनी जान बड़ी मुश्किल से बचा पाया ।
एक बार फिर लुटेरी सेना का गठन हुआ, परवेज के दुस्ट पुत्र महावत खान जो कि डकैती के काम मे पीएचडी था, उसके नेतृत्व में सेना भेजी गई, वह भी बेचारा अपनी सेना के साथ मारा गया ।
जहांगीर ने अंतिम बार खुर्रम को भेजा , इस दुस्ट ने सेना से युद्ध ना करते हुए, निहत्थे ग्रामीणों पर धावा बोल दिया । बहुत पशुधन , सोने चांदी, ओर हिन्दू स्त्रियों को लेकर वह फरार हो गया । स्त्रियों को लेजाकर जहांगीर को पेश की गई, जो कि इन्हें देखते ही बावला हो उठा, सिक्के फेंक के इतिहासकारों से लिखवा किया, की लिखो, हम विजयी हुए ।
इस विजय के झूठ का भंडाफोड़ तब होता है । जब यह पढ़ने को मिले की ” कर्णसिंह ( अमरसिंहः का पुत्र ) दिल्ली आया, बादशाह ने उसे बहुत धन दिया
क्या यह लुटेरे मुसलमान अमरसिंहः को धन दे सकते थे ? नही अमरसिंहः के पुत्र कर्ण से दिल्ली पर चढ़ाई कर अपना सारा धन, स्त्रिया वापस छुड़वा ली ।
महाराणा अमरसिंहः ने लगातार 17 युद्ध लड़े, एक भी नही हारे, लेकिन हमारे इतिहास ने इतना भी प्रयास नही किया, की इन्हें उचित सम्मान दे पाते ।